बुद्ध शांति का प्रतीक, आतंक नहीं: राष्ट्रवादी आत्मरक्षा बनाम इस्लामी कट्टरता: रविंद्र आर्य

 

टाइम’ की यांत्रिक नैरेटिव और इस्लामोफोबिया: बुद्ध, गीता व अशीन विराथु का सत्याग्रह

— अशीन विराथु पर केंद्रित एक विचारात्मक लेख

Voice of Pratapgarh News ✍️लेख रविंद्र आर्य भारत 

प्रस्तावना: आत्मरक्षा कोई पाप नहीं, बल्कि परम धर्म है।

आत्मरक्षा को आतंकवाद बताना राष्ट्वादी बुद्ध भिक्षु अशीन विराथु पर ‘टाइम’ की कथा और इस्लामी मानसिकता का वैश्विक खतरा

“स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।” (गीता 2.31)
इस श्लोक में निहित संदेश अभूतपूर्व है: जब धर्म, संस्कृति और जीवन पर आघात हो, तब लक्ष्य केवल आत्मरक्षा नहीं, बल्कि धर्मरक्षा भी होती है। भगवद्गीता का यह सिद्धांत, त्रिपिटक में संघ की रक्षा का आग्रह और जैनाचार्य सूर्यसागर महाराज की उद्घोषणा—सब एक स्वर में कहते हैं कि जब अस्तित्व पर संकट हो, सामूहिक आत्मरक्षा परम धर्म बन जाती है।

आज जब वैश्विक मीडिया ‘आत्मरक्षा’ को ‘आतंक’ बता रहा है, तब हमें स्मरण करना चाहिए कि यह सनातन सत्य ही हमारी वैचारिक ढाल है।

टाइम’ का द्वैध नैरेटिव: बुद्ध को आतंकवादी बताना

2013 में Time Magazine ने म्यांमार के राष्ट्रवादी बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु को अपने कवर पर “The Face of Buddhist Terror” के रूप में प्रस्तुत किया। इस एक निर्णय ने स्पष्ट कर दिया कि वैश्विक मीडिया इस्लामी कट्टरता के विरुद्ध उठने वाली प्रत्येक आवाज़ को ‘उग्र’, ‘घृणास्पद’, या ‘आतंकी’ ठहराने में संलग्न है।

बुद्ध, जिनकी केंद्रीय शिक्षाएँ अहिंसा, करुणा और संयम पर आधारित हैं, उनके अनुयायियों को विश्व स्तर पर आतंकवादी घोषित करना केवल एक पूर्वाग्रहपूर्ण अभियान नहीं, बल्कि नैरेटिव कंट्रोल का औजार है, जिससे इस्लामी कट्टरता के खिलाफ एकत्रित होने वालों की वैध सुरक्षा को कलंकित किया जा रहा है।

*969 आंदोलन: बौद्ध आत्मरक्षा का सांस्कृतिक स्वरूप*

969 आंदोलन, जिसका नेतृत्व राष्ट्वादी अशीन विराथु ने किया, धर्मयुद्ध नहीं—सांस्कृतिक आत्मरक्षा की पहल थी। इस आंदोलन में:

9 = बुद्ध,
6 = धम्म (धर्म),
9 = संघ (संगठन)।

जब म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों द्वारा हिंसा, अवैध घुसपैठ, और धर्मांतरण की घटनाएँ बढ़ीं, तब विराथु ने चेताया कि यदि बौद्ध महिलाएँ यौन हिंसा व धर्मांतरण की शिकार होती रहीं, तो देश की सांस्कृतिक जड़ें उखड़ जाएँगी। 969 आंदोलन” महिलाओं, मंदिरों और संस्कृति की रक्षा का संस्कृतिक अवतार था, न कि किसी सैन्य संघर्ष का।

*इस्लामी कट्टरता: वैश्विक मानवता के लिए चुनौती*

इस्लामी कट्टरता आज केवल एक धार्मिक चरमपंथ नहीं रह गई, बल्कि राजनीतिक हथियार बन चुकी है, जिसका स्वरूप कई तरीकों से सामने आता है:

• यज़ीदी महिलाओं का बलात्कार और गुलामी (ISIS)

• नाइजीरिया में बोको हराम द्वारा निर्दयता

• तालिबान द्वारा महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी

• हमास का इज़राइल पर 7 अक्टूबर 2023 का हमला

• फ्रांस, जर्मनी जैसे पश्चिमी देशों में हमले

• भारत में मंदिरों पर आतंकवादी हमले

इन सब घटनाओं के बाद भी, जब कोई देश या व्यक्ति आत्मरक्षा करता है—उसे ‘इस्लामोफोबिया’ का लेबल दे दिया जाता है, जिससे कट्टरपंथी हिंसा का असली चेहरा धुंधला पड़ जाता है।

*इस्लामोफोबिया: विचार नियंत्रित कर देने वाला हथियार*

‘इस्लामोफोबिया’ एक वैचारिक जाल है, जिसके पीछे कट्टरपंथी ताकतें छिपी हैं। जब:

• कोई पत्रकार आतंकवाद की आलोचना करता है,

• कोई संत धर्मांतरण को गलत ठहराता है,

• कोई राष्ट्र अपनी सीमाओं की रक्षा करता है—

तो शक्तिशाली मीडिया तंत्र तुरंत उसे ‘घृणा भाषी’, ‘उग्र’, या ‘अपराधी’ घोषित कर देता है।

प्रमुख प्रश्न:

1. क्या हम कुछ आतंकी समूहों की हिंसा की आलोचना करते हैं, तो हम धर्म से नफ़रत करते हैं?

2. क्या सीमाओं की रक्षा करना मानवाधिकारों का उल्लंघन है?

इन प्रश्नों के उत्तर में ‘टाइम’, ‘बीबीसी’, ‘अल जज़ीरा’ जैसे मंच लगातार नकारात्मक पहलू को उजागर करते हैं, लेकिन कट्टरपंथियों की हिंसा पर मौन रहते हैं—यह दोहरे मापदंड का प्रमाण है।

संतों और धर्मगुरुओं की चेतावनी: भारत का दृष्टिकोण

भारत में जैनाचार्य सूर्यसागर महाराज ने स्पष्ट कहा:

आत्मरक्षा आतंकवाद नहीं, बल्कि जन्मसिद्ध अधिकार है।

आचार्य विधा सागर, स्वामी रामदेव समेत कई धर्मगुरुओं ने बार-बार चेताया कि कट्टरपंथी मानसिकता हमारे समाज की सहिष्णुता और एकता के लिए सीधा खतरा है। जब संत बोलते हैं, तब उस पर राजनीति का लेबल क्यों चिपकाया जाता है?

यह वैचारिक तर्कशून्यता का चरम उदाहरण है।

मानवता बनाम कट्टरता: पीड़ित कौन?

कट्टरपंथ की मौत केवल अल्पसंख्यकों को नहीं ले जाती—
खुद उदारवादी मुसलमान भी इसका निशाना बनते हैं:

• सूफी संतों की हत्या

• अहमदिया पर हमले

• शिया व सुन्नी कट्टरपंथियों का एक-दूसरे पर अताल

इनसे स्पष्ट होता है कि यह धार्मिक संघर्ष नहीं, बल्कि मानवता बनाम कट्टरता का युद्ध है।

बुद्ध का धम्मयुद्ध: युद्ध भी शांति के लिए आवश्यक

लोग मानते हैं कि बौद्ध धर्म संघर्ष से दूर है, पर यह विचार आंशिकतः अधूरा है।
बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे। उन्होंने अनचाहे संघर्ष को न तो बढ़ावा दिया, पर अन्याय की अनदेखी नहीं सीखी।

गीता 4.8:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

यह श्लोक केवल अवतार का उद्घोष नहीं, बल्कि हर राष्ट्र और धर्म की संरक्षणशील चेतना है।

फ्रा अचान विटेसवाचिरानन: बौद्ध धर्म का वर्तमान स्वरूप

थाईलैंड के वरिष्ठ भिक्षु फ्रा अचान विटेसवाचिरानन वट थाई कुशीनगर कहते हैं:-

बुद्ध के राष्ट्रवादी अनुयायी को ‘आतंक’ कहना केवल एक भ्रामक विमर्श नहीं, बल्कि वैश्विक शांति के लिए खतरे का संकेत है।

बौद्ध भिक्षु जहाँ भी हैं, वहाँ सेवा, चिकित्सा, शिक्षा और पर्यावरण जीव की रक्षा में लगे हैं — आतंक से उनका कोई संबंध नहीं।
वे जोड़ते हैं:
यदि बुद्ध आज होते, तो वे अस्पताल बनाते, भूखों को भोजन देते, और बच्चों को पढ़ाते।

इन शब्दों में स्पष्ट है कि बौद्ध आत्मरक्षा का स्वरूप सेवा व संरक्षण है, न कि हिंसा।

उपसंहार: वैचारिक प्रतिकार की आवश्यकता

आज हम शब्दों, विचारों और दृढ़ नीतियों से युद्ध कर रहे हैं—जहाँ कट्टरपंथी हिंसा को ‘रक्षात्मक’ बताया जाता है और रक्षात्मक आत्मरक्षा को ‘अपराध’ ठहराया जाता है।

भारत, जिसके पास गीता का संदेश, बुद्ध की धम्मदृष्टि, और संतों की चेतावनी है, उसे इस वैश्विक प्रोपगेंडा का प्रत्युत्तर वैचारिक दृढ़ता, स्पष्ट भाषण और सशक्त नीति द्वारा देना चाहिए।

यदि सत्य पर हमला हो, तो शांत रहना भी पाप है।